ददाहू (हेमंत चौहान/संवादाता),
‘शिक्षा शेरनी का दूध है पीएगा वो दहाड़ेगा´ ये कथन है आधुनिक भारत के शिल्पकार, आधुनिक भारत के मनु, संबिधान निर्माता, भारत रत्न डॉ. भीम राव अम्बेडकर के। आधुनिक भारत के वो महानायक जिन्होंने शिक्षित बन संगठित होकर संघर्ष का रास्ता दिखाया। 14 अप्रैल 1891 के दिन मध्य प्रदेश की महू छावनी में राम जी सकपाल के घर एक बालक का जन्म हुआ जिन्होंने अछूत समझी जाने वाली महार जाति में जन्म लेने का दंश झेल कर विद्यालय के बाहर बैठ कर शिक्षा ग्रहण की और 9 भाषाओं के ज्ञाता बन 32 डिग्रियां ले कर दुनियाँ के सबसे पढ़े -लिखें व्यक्ति का ख़िताब हासिल कर ये दिखा दिया कि सच्ची लग्न और मेहनत का जज्बा हो तो कुछ भी असम्भव नहीं। उनके जीवन के संघर्ष पर बहुत कुछ लिखा और कहा गया है लेकिन मेरा मकसद केवल आज के संदर्भ में बात करना है। बाबा साहब के नाम से विख्यात आम्बेडकर जी केवल एक राजनेता ही नहीं थे वे इस देश को चलाने वाले संबिधान के निर्माता, पहले क़ानून मंत्री, समाज सुधारक, समाज शास्त्री और अर्थ शास्त्री भी थे परन्तु इसे समय की विडंबना ही कहिए या षड्यंत्र कि पिछले कुछ वर्षों से उन्हें केवल एक वर्ग विशेष का नेता बना कर, मसीहा बना कर उनके योगदान और कद को छोटा करने का प्रयास किया जा रहा है। आजकल ज्ञान बाँटने वाले सोशल मीडिया के प्लेटफार्म या प्रेरक प्रसंग सुनाने वाले विद्वानो के द्वारा हर जगह बताया जाता है कि सचिन तेंदुलकर 10वीं फैल थे पर क्रिकेट के भगवान बने, धीरू भाई अम्बानी एक छोटी सी क्लर्क की नौकरी करते थे परन्तु अमीरों की सूची में शुमार हुए, देश के माननीय, यशस्वी प्रधानमंत्री जी चाय बेचते थे परन्तु कहीं भी ये नहीं बताया जाता है कि जातिय विषमता का शिकार हुआ एक छोटा सा बालक अमानवीय जातिय प्रताड़ना सहते हुए स्कूल के दरवाजे के बाहर बैठ कर 9 भाषाओ का ज्ञाता बन 32 डिग्रियां हासिल कर दुनियाँ का सबसे पढ़ा – लिखा इंसान बन गया। क्यों? क्या ये बात देश की युवा पीढ़ी को प्रेरणा नहीं दे सकती या आज भी देश के माथे पर लगे जातिय कलंक को छुपाने का प्रयास किया जाता है। सरकारी कार्यालयों में अधिकतर लगी तस्वीरों में संबिधान निर्माता की तस्वीर यदा- कदा ही कहीं दिखाई देती है। जिस संबिधान के बिना 10 मिनट के लिए भी देश की व्यवस्था का चलना असम्भव है चाहे वो नयाय पालिका हो, विधानपालिका हो या कार्यपालिका उस संबिधान को अकेले अपनी काबिलियत के दम पर अंतिम रूप देने वाले बाबा साहब का योगदान केवल इस देश के अछूत समझे जाने वाले लोगों के लिए ही था। हालांकि इस बात में बिल्कुल भी संदेह नहीं कि जिस जातिय विषमता की पीड़ा को उन्होंने खुद झेला था उसे खत्म करने के लिए उन्होंने आजीवन संघर्ष किया और आम्बेडकर जी ने गोलमेज सम्मेलन में सदियों से शोषित आरक्षित वर्ग के लोगों को हक दिलाने के लिए 17 अगस्त 1932 को कम्युनल अवार्ड में दोहरा मत देने का अधिकार दिलाया था 20 सितंबर 1932 में इसके विरोध में गाँधी जी यॉरवड़ा जेल में अनशन पर बैठ गए थे। भारी मन से गाँधी जी को जीवन दान देने और कस्तूरबागाँधी जी को सिंदूर दान देने के लिए अम्बेडकर जी को 24 सितंबर 1932 को पूना समझौता करना पड़ा और इस दोहरा मत अधिकार को वापस ले कर वर्तमान में दिया जाने वाला ये आरक्षण का झूंजुना पकड़वाया गया,लेकिन आरक्षण से सदियों से शोषित इस समाज का कितना भला हुआ ये आंकड़े भली भांति बताते है। आज भी अगर बाबा साहब के रास्ते पर अगर सच में कोई राजनीतिक पार्टी चल कर वँचित वर्ग का भला चाहती है तो उसे पूना पेक्ट को रद्द कर दोहरा मत अधिकार देना चाहिए। दुःखद स्तिथि तो ये है कि बाबा साहब ने जिन लोगों को उनके हक दिलाने के लिए अपना जीवन खपा दिया वे भी आज तक उनके बताए रास्ते पर नहीं चल पाए। इस बात का दुःख बाबा साहब के ही कथन में साफ झलकता था।18 मार्च 1956 में आगरा के रामलीला मैदान में बाबा साहब ने भाषण दिया था जिसमें अपने समाज के हरवर्ग , राजनेताओं से,छात्रों से, किसानों से और सरकारी कर्मचारियों से, पढ़े -लिखें लोगों से उन्होंने आग्रह किया था और उसी दिन भारी मन से कहा था कि मुझे मेरे ही समाज के पढ़े -लिखें लोगों ने धोखा दिया। वे आज भी रूढ़ियों में बंध कर समाज को जगाने के बजाय उन्हें बंधन में डाले जा रहे है। सरकारी कर्मचारियों और पढ़े -लिखें लोगों से उन्होंने कहा था कि मैंने आपके लिए शिक्षा और नौकरी के दरवाजे खोल दिए है तो आपको भी अब केवल अपना पेट भरने की बजाय अपने धन का 5%हिस्सा अपने समाज के लोगों के उत्थान के लिए लगाना चाहिए और pay back to society के सिद्धांत का पालन कर आप अपना टाईम, टेलेंट और ट्रेजरी को समाज के उत्थान के लिए लगा दें। राजनेताओं से उन्होंने आग्रह किया था कि आपको प्रतिनिधित्व जिस बजह से मिला है आप उन लोगों को मत भूलना जिस दिन राजा आपको आपको महल से निकाल देंगा उस दिन कहाँ जाओगे।हमें उनका वे भाषण जरूर पढ़ना चाहिए।
आम्बेडकर ने पूज्यते यत्र नारी रमन्ते तत्र देवा का केवल उच्चारण करने वाले देश में नारी की दयनीय स्तिथि में सुधार करने के लिए क्या नहीं किया। उन्होंने 1951 में हिन्दू कोड बिल संसद में लाया जिसमें महिलाओं को पिता की सम्पति में अधिकार, किसी भी बच्चे को गोद लेने का अधिकार, अनुच्छेद 14 में लिंग भेद से आजादी, अनुच्छेद 16 में सरकारी नौकरी में पुरषों के समान वेतन, अनुच्छेद 21 व 22 में स्वयं की जिंदगी के निर्णय लेने का अधिकार, पुरुषो के एक से अधिक शादी करने पर प्रतिबंध, महिलाओं को तलाक लेने का अधिकार, अंतरजातीय विवाह का अधिकार दिला कर उनके मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया जिसके फ्लस्वरूप उनका संसद में भारी विरोध किया गया और विरोध करने वाले कोई विदेशी नहीं अपने ही बड़े-बड़े नामी गिरामी विद्वान थे। बाबा साहब महिलाओं को हक दिलाने के लिए अड़े रहे और विरोध स्वरूप क़ानून मंत्री के पद से त्यागपत्र दे दिया लेकिन अफ़सोस अधिकतर महिलाओं को ये जानकारी ही नहीं कि उनको आज़ाद जीवन जीने वाले अधिकारों के जनक बाबा साहब भी थे। अफ़सोस कि देश के लिए अपनी अंतिम साँस और रक्त का एक एक कतरा देने वे बाबा साहब को आज केवल एक वर्ग विशेष का मसीहा बना कर रख दिया है। युवा पीढ़ी के सामने उन्हें समाज को आरक्षण का जनक बता कर एक खलनायक के रूप में पेश किया जा रहा है। यही बजह है कि जिस संबिधान के बिना देश 10 मिनट के लिए भी नहीं चल सकता उसे गाली देते हुए कुछ लोगों को सुना जाता है। उनकी जयंती पर सरकारी विभागों को कार्यक्रम करने के निर्देश न के बराबर आते है और राजनेता लोग केवल वोट वटोरने के उद्देश्य से उन्हें केवल दलितों का मसीहा बता कर उनके योगदान को सीमित करते है। ज़ब कहीं पर कुछ वँचित वर्ग के संगठनों द्वारा उनकी जयंती या पुण्यतिथि मनाई जाती है तो उसमें समाज के अन्य वर्ग के लोगों की भागीदारी न के बराबर होती है। यह इस देश की बहुत बड़ी विडंबना है आम्बेडकर जी आधुनिक भारत के शिल्पकार थे जिन्होंने जाति विहीन, वर्ग विहीन समानता के पथ पर चलने वाले सशक्त अखंड भारत का सपना देखा था।